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उपन्यास >> वह अब भी वहीं है

वह अब भी वहीं है

प्रदीप श्रीवास्तव

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 17349
आईएसबीएन :9781613018132

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प्रदीप श्रीवास्तव का नया उपन्यास

हर उपन्यास, कहानी के पीछे भी एक कहानी होती है। जो उसकी बुनियाद की पहली शिला होती है। उसी पर पूरी कहानी या उपन्यास अपनी इमारत खड़ी करती है। यह उपन्यास भी कुछ ऐसी ही स्थितियों से गुजरता हुआ अपना पूरा आकार ग्रहण कर सका। जिस व्यक्ति को केंद्र में रखकर यह अपना स्वरूप ग्रहण करता है, उससे जब मैं पहली बार मिला था, तब दिमाग में रंच-मात्र को भी यह बात नहीं आई थी, कि कभी उसे केंद्र में रख कर उपन्यास क्या कोई लघु-कथा भी लिखूंगा। मगर संयोग ऐसा बना कि अगले दो महीने में उससे तीन बार भेंट हुई। उस समय मैं एक राजनीतिक पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारणी का सदस्य और एक प्रदेश की कमेटी में सचिव था। यह राजनीति मुझे एक जगह रुकने नहीं देती थी। इसी क्रम में मैं हर दूसरे तीसरे सप्ताह संत रविदास नगर पहुंचता था। वहां के एक स्थानीय नेता अपने कुछ समर्थकों के साथ आव-भगत में उपस्थित रहते थे। उन्हीं के साथ वह करीब सवा छह फीट ऊँचा युवक आता था। सबके अपने-अपने सरोकार होते हैं, उसके भी थे। अपनी ऊंचाई, अत्यधिक सांवले रंग लेकिन उतने ही तीखे नैन-नक्स के कारण वह भीड़ में भी किसी को भी एक बार आकर्षित कर ही लेता था। उसने तीसरी मुलाकात में मुझसे पहली बार दो मिनट बात की। वह अपने जीवन के एकमात्र सपने को पूरा करने के लिए मुझसे मदद चाहता था। साथ ही विशेष आग्रह यह भी था कि उसका मंतव्य उसके नेता जी को बिलकुल न बताऊँ।

नेताजी जिसे अपना अनुचर मान कर, साथ लिए घूमते थे, वह उन्हें अपने सपने को पूरा करने का एक साधन मान कर, अनुचर होने का रूप धारण किए हुए था। मेरे लिए असमंजस की स्थिति थी, कि कारण चाहे जो भी हो, नेता जी पूरे मन से मेरी आवभगत में लगे रहते हैं। ऐसे में उन्हें अंधेरे में रखकर कैसे उसके लिए कुछ करूं. दूसरी समस्या यह थी, कि उसने जो सहयोग मांगा था, वह कर पाना मेरे लिए संभव नहीं था, तो मैंने असमर्थता प्रकट कर दी। यदि संभव होता तब भी मैं नेताजी के संज्ञान में ही सहयोग करता।

मेरे असमर्थता प्रकट करने के बाद वह नेताजी के साथ आगे की कई मुलाकातों में नहीं दिखा, तो मैंने एक बार जिज्ञासावश नेता जी से पूछ लिया। उन्होंने जो कुछ उसके बारे में बताया उससे मैं हतप्रभ रह गया, कि कोई अपने सपने को पूरा करने के लिए अपने ही मां-बाप, परिवार के सदस्यों की पीठ में छूरा कैसे घोंप सकता है। संवेदना और भावनात्मक लगाव क्या कहने को भी नहीं बचे हैं, क्या समाज इनसे पूर्णतः शून्य हो गया है। नेताजी ने उसके कुकृत्य बताते हुए टिप्पणी की, ' वह तन से भी ज्यादा मन से काला है। ' यह सुनते ही मैंने उस प्रसंग पर विराम लगा दिया, जिससे कि उस पर और चर्चा न हो। लेकिन आगे मैं जब भी वहां जाता और नेताजी आते तो मुझे लगता कि, जैसे वह उन्हीं के साथ ही खड़ा है। अजीब मनःस्थिति हो जाती थी। उसके बारे में जानने की प्रबल उत्कंठा पैदा हो जाती। आखिर मैंने नेता जी से पूछना शुरू कर दिया। हर बार वह कुछ ऐसा बताते कि, मैं अचरज में पड़ जाता कि, आखिर वह कैसा मनुष्य है?

समय तेज़ी से बीता, नेता जी ने अपने सरोकारों को साधते हुए बड़ा आर्थिक साम्राज्य खड़ा कर लिया, और मुझ में राजनीति को लेकर ऐसी विरक्ति पैदा हुई, कि सक्रिय राजनीति से विदा ले ली। इसी के साथ तमाम लोगों ने भी मुझसे दूरी बना ली। लेकिन नेताजी, कुछ अन्य आज भी मित्रवत समीप बने हुए हैं। वह भावना-शून्य व्यक्ति भी स्मृति पटल से विलुप्त नहीं हुआ, तो नेता जी के मिलते ही अक्सर उसकी चर्चा हो जाती। यह क्रम वर्षों चलता रहा। उसकी तमाम बातों को जानने के बाद, उसके प्रति मेरे विचारों में परिवर्तन होने लगा। मुझे लगा कि वह पूर्णतः संवेदनाहीन, भावनाशून्य नहीं है। उसकी हर चर्चा के बाद, उसे और जानने-समझने की इच्छा प्रबल होती गई। मेरे आग्रह पर नेताजी ने ऐसा संपर्क-सूत्र स्थापित किया कि सीधे उसी से बातचीत का सिलसिला चल निकला।

वह जल्दी ही बहुत खुलकर बात करने लगा। बीच-बीच में यह सिलसिला कई बार भंग भी हुआ। दो-दो, ढाई-ढाई साल तक कोई बात-चीत नहीं हुई। लंबे अंतराल के बाद जब बात होती तो वह काफी लंबी चलती। ऐसी ही एक बातचीत में इस उपन्यास की नींव की पहली शिला अनायास ही पड़ गई। वह मुझे अपने सपने को पूरा करने के लिए, जुनून की चरम सीमा से भी आगे निकल जाने वाले लोगों के समूह का सदस्य लगा। साथ ही यह भी पाया कि वह अपने पथ से कई बार भटका भी है। इस भटकाव ने उसे उस स्थान पर ला खड़ा कर दिया है, जहां उसके अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लग गया है। अब वह स्वयं से बार-बार पूछ रहा है कि, 'यह सब अब और कितने दिन?' परिवार और अन्य के साथ किए गए विश्वासघात अन्य अनेक कामों के लिए पश्चाताप की अग्नि में वह जल रहा है। लेकिन आज भी इस अग्नि से भी ज्यादा प्रचंड है, उसकी अपने सपने को पा लेने के जुनून की अग्नि। जबकि वह बहुत अच्छी तरह जानता है कि अब उसकी मुट्ठी से समय की रेत करीब-करीब निकल चुकी है। मेरी प्रबल इच्छा है कि उसकी मुट्ठी से समय की रेत का आखिरी कण निकलने से पहले, मैं उस पर केंद्रित इस उपन्यास के प्रकाशन की सूचना और एक प्रति उसे भेंट कर दूँ, जिससे ख़ुशी के कुछ पल, उसकी मुट्ठी से गुजर कर, उसे पश्चाताप की अग्नि की तपिस के बीच शीतलता की भी अनुभूति करा दें। और साथ ही मैं नेता जी को धन्यवाद दे सकूँ, कि उनके कारण यह संभव हुआ।

- प्रदीप श्रीवास्तव

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